शनिवार, 25 सितंबर 2010

कश्मीर

हमें बहुत बाद में पता चला था कि हिदुस्तान का जो नक्शा हम देखते और बनाते आये थे वो सच
नहीं था। नक़्शे में भारत की तस्वीर एक मानवीय मूरत लगती थी, और जान कर बेहद मायूसी हुई थी कि इस मूरत का सर कटा है या सर का मुकुट किसी और ने ले रखा है?
खैर, ISc करने जब हम सायंस कॉलेज में थे तो कश्मीर की ख़बरें हवा में उड़ने लगीं थीं। मुझे धुंधली सी याद है एक दिन कश्मीर से विस्थापित हिन्दू पंडित सम्माज के कुछ सदस्य कॉलेज के छात्रों से मिलने को आये थे। उन्होंने अपनी कहानी सुनायी थी जो मुझे याद नहीं; मगर याद है हैरानी और गुस्से का एक भाव जो मन को मथने लगा था। मुफ्ती सईद की बेटी का अपहरण हुआ था और कुछ लोगों को छोड़ा गया था। इंदिरा गाँधी ke समय में मकबूल बट को न छोड़े जाने पर राजनयिक lalit माकन की हत्या हुई थी और तत्पश्चात मकबूल ko फांसी। मालूम नहीं सरकार इस बार क्यों दिग गयी थी। फिर अखबार के पन्नों से आतंकवादी शब्द की जगह हलाकू का प्रयोग शुरू हो गया था जिसका मतलब क्या था मुझे अब भी मालूम नहीं।
कश्मीर की आजादी की मांग मुझे समझ में नहीं आती थी और अब भी नहीं समझ पाता हूँ। वो कौन है जो कश्मीर को गुलाम बनाये है ? और हम सबको उसके विरुद्ध खड़ा होना चाहिए, जैसे हम अंग्रेजों के विरुद्ध मिल कर खड़े हुए थे। फिर पता चला की वो तो मानते हैं की हमने / भारत ने ही उन्हें गुलाम बना रखा है। यह कैसे हो सकता है? वहां लोकतंत्र है वो अपनी सरकार चुनते हैं और चलते हैं, फिर गुलामी कैसी?

खैर सोचने के बाद मैं ये सोच कर आश्वस्त रहता था कि हमें कश्मीर कि चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि शेष भारत में रहने वाले मुस्लिम और उनके नेता लोग ये सुनिश्चित करेंगे कि धर्म के आधार पर देश फिर से विभाजित नहीं हो सकता क्योंकि पाकिस्तान बनने के बाद भी इस देश के लोगों ने इसके सैधांतिक आधार को नकारते हुए साथ में रहते रहे हैं। अगर कश्मीर इस लिए अलग हुआ क्योंकि वहाँ की मुस्लिम बहुल जनता सेकुलर भारत के साथ नहीं रह सकती तो क्या फिर बचा हुआ भारत सेकुलर रहने की ताकत और हिम्मत रख पायेगा?

आज मैं उतना आश्वश्त नहीं हूँ। मानवीय अधिकार वर्तमान जगत में सबसे प्रभावी मूल मंत्र है। कल बीबीसी की UK की राष्ट्रीय खबर में "भारत प्रशाषित कश्मीर के उथल पुथल की खबर प्रमुखता से आयी थी। और मुझे लगता भी है की अगर वहां के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते तो उन्हें क्यों जबरदस्ती रखा जाय?
अब भारतीय लोगों में, मीडिया में और सरकार में कश्मीर के प्रति प्रतिबद्धता में कमी दीखती है।
कुछ दिनों पहले सुरेश चिपलूनकर जी ने नवभारत के रिपोर्ट के विषय में लिखा था, अगर वह सच था तो स्थिति चिंता जनक है।
अभी सर्वदलीय दल कश्मीर गया था। अलगाववादियों से किसीने यह क्यों नहीं पूछा की उन्हें भारत से अलग क्यों होना है? ओमर अब्दुल्ला की सरकार उनकी सरकार है तो फिर उन्हें आजादी किस से चाहिए?

क्या यह बात कहना सही होगा की कश्मीर के लिए अगर जनमत होना है तो तो सिर्क कश्मीर के ही नहीं बल्कि पूरे देश के मुसलमानों को मत का अधिकार होना चाहिए। क्योंकि इस जनमत के stakeholder वो भी हैं.

शायद समय के साथ सब ठीक हो जायेगा?

2 टिप्‍पणियां:

  1. आशा यही करते हैं कि सब ठीक हो जाये पर इतना सरल लगता नहीं है।

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  2. @इंदिरा गाँधी ke समय में मकबूल बट को न छोड़े जाने पर राजनयिक lalit माकन की हत्या हुई थी और तत्पश्चात मकबूल ko फांसी।

    आप शायद ललित माकन को रविन्द्र म्हात्रे से कंफ़्यूज़ कर रहे हैं।

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